Whatever has been said in this video, all the proof is in this comment.
And all these proofs have been given from Ved Vyas Mahabharata GitaPress...........
How Arjuna learned to shoot arrows at night like day :
तं दृष्ट्वा नित्यमुद्युक्तमिष्वस्त्रं प्रति फाल्गुनम् ।
आहूय वचनं द्रोणो रहः सूदमभाषत ।। २१ ।।
अन्धकारेऽर्जुनायान्नं न देयं ते कदाचन ।
न चाख्येयमिदं चापि मद्वाक्यं विजये त्वया ।। २२ ।।
अर्जुनको धनुष-बाणके अभ्यासमें निरन्तर लगा हुआ देख द्रोणाचार्यने रसोइयेको एकान्तमें बुलाकर कहा—‘तुम अर्जुनको कभी अँधेरेमें भोजन न परोसना और मेरी यह बात भी अर्जुनसे कभी न कहना’ ।। २१-२२ ।।
ततः कदाचिद् भुञ्जाने प्रववौ वायुरर्जुने ।
तेन तत्र प्रदीपः स दीप्यमानो विलोपितः ।। २३ ।।
तदनन्तर एक दिन जब अर्जुन भोजन कर रहे थे, बड़े जोरसे हवा चलने लगी; उससे वहाँका जलता हुआ दीपक बुझ गया ।। २३ ।।
भुङ्क्त एव तु कौन्तेयो नास्यादन्यत्र वर्तते ।
हस्तस्तेजस्विनस्तस्य अनुग्रहणकारणात् ।। २४ ।।
उस समय भी कुन्तीनन्दन अर्जुन भोजन करते ही रहे। उन तेजस्वी अर्जुनका हाथ अभ्यासवश अँधेरेमें भी मुखसे अन्यत्र नहीं जाता था ।। २४ ।।
तदभ्यासकृतं मत्वा रात्रावपि स पाण्डवः ।
योग्यां चक्रे महाबाहुर्धनुषा पाण्डुनन्दनः ।। २५ ।।
उसे अभ्यासका ही चमत्कार मानकर महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुन रातमें भी धनुर्विद्याका अभ्यास करने लगे ।। २५ ।।
तस्य ज्यातलनिर्घोषं द्रोणः शुश्राव भारत ।
उपेत्य चैनमुत्थाय परिष्वज्येदमब्रवीत् ।। २६ ।।
भारत! उनके धनुषकी प्रत्यंचाका टंकार द्रोणने सोते समय सुना। तब वे उठकर उनके पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर बोले ।। २६ ।।
According to Ved Vyas, Arjuna did not lose any war in his life :-
तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनः पुनः ।
निर्विण्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम् ।। ४ ।।
अर्जुनका मन अशान्त था। वे बारंबार लंबी साँस खींच रहे थे। उनका चित्त खिन्न एवं विरक्त हो चुका था। उन्हें इस अवस्थामें देखकर व्यासजीने पूछा— ।।
नखकेशदशाकुम्भवारिणा किं समुक्षितः ।
आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया ।। ५ ।।
‘पार्थ! क्या तुमने नख, बाल अथवा अधोवस्त्र (धोती)-की कोर पड़ जानेसे अशुद्ध हुए घड़ेके जलसे स्नान कर लिया है? अथवा तुमने रजस्वला स्त्रीसे समागम या किसी ब्राह्मणका वध तो नहीं किया है? ।।
युद्धे पराजितो वासि गतश्रीरिव लक्ष्यसे ।
न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ ।। ६ ।।
श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षिप्रमाख्यातुमर्हसि ।
भरतश्रेष्ठ! तुम कभी किसी युद्ध में पराजित हुए हो—यह मैंने कभी नहीं सुना ; फिर तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है? पार्थ! यदि मेरे सुननेयोग्य हो तो अपनी इस मलिनताका कारण मुझे शीघ्र बताओ’ ।। ६ ।।
Karn Defeated by Arjun 3 time in virat yudhh(Arjun defeated karn 8 time in hole life) :-
1.)अथास्य बाहूरुशिरोललाटं
ग्रीवां वराङ्गानि परावमर्दी ।
शितैश्च बाणैर्युधि निर्बिभेद
गाण्डीवमुक्तैरशनिप्रकाशैः ।। ३५ ।।
शत्रुओंका मान-मर्दन करनेवाले वीर धनंजयने गाण्डीव धनुषसे छूटकर वज्रके समान प्रकाशित होनेवाले तीखे सायकोंद्वारा उस युद्धमें कर्णकी दोनों भुजाओं, जाँघों, मस्तक, ललाट तथा ग्रीवा आदि उत्तम अंगोंको छेद डाला ।। ३५ ।।
स पार्थमुक्तैरिषुभिः प्रणुन्नो
गजो गजेनेव जितस्तरस्वी ।
विहाय संग्रामशिरः प्रयातो
वैकर्तनः पाण्डवबाणतप्तः ।। ३६ ।।
अर्जुनके छोड़े हुए बाणोंकी चोट खाकर सूर्यपुत्र कर्ण तिलमिला उठा और एक हाथीसे पराजित हुए दूसरे वेगशाली हाथीकी भाँति वह पाण्डुनन्दन अर्जुनके बाणोंसे संतप्त हो युद्धका मुहाना छोड़कर भाग निकला ।।
2.)तस्य भित्त्वा तनुत्राणं कायमभ्यगमच्छरः ।
ततः स तमसाऽऽविष्टो न स्म किंचित् प्रजज्ञिवान् ।। २६ ।।
यह बाण कर्णका कवच काटकर उसके वक्षःस्थलके भीतर घुस गया। इससे कर्णको मूर्च्छा आ गयी और उसे किसी भी बातकी सुध-बुध न रही ।। २६ ।।
स गाढवेदनो हित्वा रणं प्रायादुदङ्मुखः ।
ततोऽर्जुन उदक्रोशदुत्तरश्च महारथः ।। २७ ।।
कर्णको उस चोटसे बड़ी भारी वेदना हुई और वह युद्धभूमिको छोड़कर उत्तर दिशाकी ओर भागा। यह देख अर्जुन और उत्तर दोनों महारथी जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे ।। २७ ।।
3.)स तान्यनीकानि निवर्तमाना-
न्यालोक्य पूर्णौघनिभानि पार्थः ।
हंसो यथा मेघमिवापतन्तं
धनंजयः प्रत्यतपत् तरस्वी ।। ६ ।।
जैसे सूर्य घिरती हुई मेघोंकी घटाको अपनी किरणोंसे तपाता है, उसी प्रकार वेगशाली कुन्तीपुत्र धनंजयने भारी जलप्रवाहके समान लौटती हुई उन कौरवसेनाओंको देखकर उन्हें संताप देना आरम्भ किया ।। ६ ।।
ते सर्वतः सम्परिवार्य पार्थ-
मस्त्राणि दिव्यानि समाददानाः ।
ववर्षुरभ्येत्य शरैः समन्ता-
न्मेघा यथा भूधरमम्बुवर्गैः ।। ७ ।।
दिव्य अस्त्र धारण किये हुए उन योद्धाओंने अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया और जैसे बादल पहाड़के ऊपर सब ओरसे पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे निकट आकर उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे ।। ७ ।।
ततोऽस्त्रमस्त्रेण निवार्य तेषां
गाण्डीवधन्वा कुरुपुङ्गवानाम् ।
सम्मोहनं शत्रुसहोऽन्यदस्त्रं
प्रादुश्चकारैन्द्रिरपारणीयम् ।। ८ ।।
तब शत्रुओंका वेग सहन करनेवाले इन्द्रपुत्र गाण्डीवधारी अर्जुनने अपने अस्त्रसे कौरवदलके उन श्रेष्ठ वीरोंके अस्त्रोंका निवारण करके सम्मोहन नामक दूसरा अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण करना किसीके लिये भी असम्भव था ।। ८ ।।
ततो दिशश्चानुदिशो विवृत्य
शरैः सुधारैर्निशितैः सुपत्रैः ।
गाण्डीवघोषेण मनांसि तेषां
महाबलः प्रव्यथयाञ्चकार ।। ९ ।।
फिर तो उन महाबलीने सुन्दर पंख और पैनी धारवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओं और दिक्कोणोंको आच्छादित करके गाण्डीव धनुषकी (भयंकर) टंकारसे कौरवयोद्धाओंके हृदयमें बड़ी व्यथा उत्पन्न कर दी ।। ९ ।।
ततः पुनर्भीमरवं प्रगृह्य
दोर्भ्यां महाशङ्खमुदारघोषम् ।
व्यनादयत् स प्रदिशो दिशः खं
भुवं च पार्थो द्विषतां निहन्ता ।। १० ।।
तत्पश्चात् शत्रुहन्ता कुन्तीकुमारने भयंकर शब्द करनेवाले अपने महाशंखको, जिसकी आवाज बहुत दूरतक सुनायी पड़ती थी, दोनों हाथोंसे थामकर बजाया। उसकी ध्वनि सम्पूर्ण दिशाओं-विदिशाओं, आकाश तथा पृथ्वीमें सब ओर गूँज उठी ।। १० ।।
Karn Defeated by Abhimanyu:-
अन्यानपि महेष्वासांस्तूर्णमेवाभिदुद्रुवे ।। ६ ।।
राजन्! अपने भाईको मारा गया देख कर्णको बड़ी व्यथा हुई। इधर सुभद्राकुमार अभिमन्युने गीधकी पाँखवाले बाणोंद्वारा कर्णको युद्धसे भगाकर दूसरे-दूसरे महाधनुर्धर वीरोंपर भी तुरंत ही धावा किया ।। ५-६ ।।
ततस्तद् विततं सैन्यं हस्त्यश्वरथपत्तिमत् ।
क्रुद्धोऽभिमन्युरभिनत् तिग्मतेजा महारथः ।। ७ ।।
उस समय क्रोधमें भरे हुए प्रचण्ड तेजस्वी महारथी अभिमन्युने हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसे युक्त उस विशाल चतुरंगिणी सेनाको विदीर्ण कर डाला ।। ७ ।।
कर्णस्तु बहुभिर्बाणैरर्द्यमानोऽभिमन्युना ।
अपायाज्जवनैरश्वैस्ततोऽनीकमभज्यत ।। ८ ।।
अभिमन्युके चलाये हुए बहुसंख्यक बाणोंसे पीड़ित हुआ कर्ण अपने वेगशाली घोड़ोंकी सहायतासे शीघ्र ही रणभूमिसे भाग गया। इससे सारी सेनामें भगदड़ मच गयी ।। ८ ।।
Karn Defeated by bheem 6 time :-
किंचिद् विचलितः कर्णः सुप्रहाराभिपीडितः ।
आकर्णपूर्णमाकृष्य भीमं विव्याध सायकैः ।। ३० ।।
उस गहरे प्रहारसे पीड़ित हो कर्ण कुछ विचलित हो उठा। फिर धनुषको कानतक खींचकर उसने अनेक बाणोंद्वारा भीमसेनको बींध डाला ।। ३० ।।
चिक्षेप च पुनर्बाणान् शतशोऽथ सहस्रशः ।
स शरैरर्दितस्तेन कर्णेन दृढधन्विना ।
धनुर्ज्यामच्छिनत् तूर्णं भीमस्तस्य क्षुरेण ह ।। ३१ ।।
तत्पश्चात् उनपर पुनः सैकड़ों और हजारों बाणोंका प्रहार किया। सुदृढ़ धनुर्धर कर्णके बाणोंसे पीड़ित हो भीमसेनने एक क्षुरके द्वारा तुरंत ही उसके धनुषकी प्रत्यंचा काट दी ।।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ।
वाहांश्च चतुरस्तस्य व्यसूंश्चक्रे महारथः ।। ३२ ।।
साथ ही उसके सारथिको एक भल्लसे मारकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं, महारथी भीमने उसके चारों घोड़ोंके भी प्राण ले लिये ।। ३२ ।।
हताश्वात् तु रथात् कर्णः समाप्लुत्य विशाम्पते ।
स्यन्दनं वृषसेनस्य तूर्णमापुप्लुवे भयात् ।। ३३ ।।
प्रजानाथ! उस समय कर्ण भयके मारे उस अश्वहीन रथसे कूदकर तुरंत ही वृषसेनके रथपर जा बैठा ।। ३३ ।।
निर्जित्य तु रणे कर्णं भीमसेनः प्रतापवान् ।
ननाद बलवान् नादं पर्जन्यनिनदोपमम् ।। ३४ ।।
इस प्रकार बलवान् एवं प्रतापी भीमसेनने रणभूमिमें कर्णको पराजित करके मेघ-गर्जनाके समान गम्भीर स्वरसे सिंहनाद किया ।। ३४
Karn Defeated By Satyaki:- (veer Satyaki)
ततः पर्याकुलं सर्वं न प्राज्ञायत किंचन ।
तथा सात्यकिना वीरे विरथे सूतजे कृते ।। ६७ ।।
सात्यकिके द्वारा वीरवर सूतपुत्र कर्णके रथहीन कर दिये जानेपर सारा सैन्यदल सब ओरसे व्याकुल हो उठा। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था ।। ६७ ।।
हाहाकारस्ततो राजन् सर्वसैन्येष्वभून्महान् ।
कर्णोऽपि विरथो राजन् सात्वतेन कृतः शरैः ।। ६८ ।।
दुर्योधनरथं तूर्णमारुरोह विनिःश्वसन् ।
राजन्! उस समय सारी सेनाओंमें महान् हाहाकार होने लगा। महाराज! सात्यकिके बाणोंसे रथहीन किया गया कर्ण भी लंबी साँस खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधनके रथपर जा बैठा ।। ६८ ।।
मानयंस्तव पुत्रस्य बाल्यात् प्रभृति सौहृदम् ।। ६९ ।।
कृतां राज्यप्रदानेन प्रतिज्ञां परिपालयन् ।
बचपनसे लेकर सदा ही किये हुए आपके पुत्रके सौहार्दका वह समादर करता था और दुर्योधनको राज्य दिलानेकी जो उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी, उसके पालनमें वह तत्पर था ।। ६९ ।।
तथा तु विरथं कर्णं पुत्रांश्च तव पार्थिव ।। ७० ।।
दुःशासनमुखान् वीरान् नावधीत् सात्यकिर्वशी ।
रक्षन् प्रतिज्ञां भीमेन पार्थेन च पुराकृताम् ।। ७१ ।।
राजन्! अपने मनको वशमें करनेवाले सात्यकिने रथहीन हुए कर्णको तथा दुःशासन आदि आपके वीर पुत्रोंको भी उस समय इसलिये नहीं मारा कि वे भीमसेन और अर्जुनकी पहलेसे की हुई प्रतिज्ञाकी रक्षा कर रहे थे ।। ७०-७१ ।।
विरथान् विह्वलांश्चक्रे न तु प्राणैर्व्ययोजयत् ।
भीमसेनेन तु वधः पुत्राणां ते प्रतिश्रुतः ।। ७२ ।।
अनुद्यूते च पार्थेन वधः कर्णस्य संश्रुतः ।
उन्होंने उन सबको रथहीन और अत्यन्त व्याकुल तो कर दिया, परंतु उनके प्राण नहीं लिये। जब दुबारा द्यूत हुआ था, उस समय भीमसेनने आपके पुत्रोंके वधकी प्रतिज्ञा की थी और अर्जुनने कर्णको मार डालनेकी घोषणा की थी ।। ७२ ।।
वधे त्वकुर्वन् यत्नं ते तस्य कर्णमुखास्तदा ।। ७३ ।।
नाशक्नुवंस्ततो हन्तुं सात्यकिं प्रवरा रथाः ।
कर्ण आदि श्रेष्ठ महारथियोंने सात्यकिके वधके लिये पूरा प्रयत्न किया; परंतु वे उन्हें मार न सके ।। ७३ ।।
Arjuna's age at the time of Pandu's death :-
दर्शनीयांस्ततः पुत्रान् पाण्डुः पञ्च महावने ।
तान् पश्यन् पर्वते रम्ये स्वबाहुबलमाश्रितः ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय! उस महान् वनमें रमणीय पर्वत-शिखरपर महाराज पाण्डु उन पाँचों दर्शनीय पुत्रोंको देखते हुए अपने बाहुबलके सहारे प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे ।। १ ।।
(पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फाल्गुनस्य च धीमतः ।
तदा उत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने ।।
रक्षणे विस्मृता कुन्ती व्यग्रा ब्राह्मणभोजने ।
पुरोहितेन सहिता ब्राह्मणान् पर्यवेषयत् ।।
तस्मिन् काले समाहूय माद्रीं मदनमोहितः ।)
सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे ।
भूतसम्मोहने राजा सभार्यो व्यचरद् वनम् ।। २ ।।
एक दिनकी बात है, बुद्धिमान् अर्जुनका चौदहवाँ वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्म-तिथिको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें ब्राह्मणलोगोंने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया। उस समय कुन्तीदेवीको महाराज पाण्डुकी देखभालका ध्यान न रहा। वे ब्राह्मणोंको भोजन करानेमें लग गयीं। पुरोहितके साथ स्वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं।
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